धर्मग्रंथ सब जला चुकी है जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर,मस्जिद,गिरजे सबको तोड़ चला जो मतवाला,
पंडित,मोमिन पादरियों के फंदे को जो कट चूका,
कर सकती है आज उसीका स्वागत मेरी मधुशाला.
बडें बड़ें परिवार मिटे यों एक न हो रोनेवाला ,
हो जाये सुनसान महल वे जहाँ थिरकती सुरबाला,
राज्य उलट जाए भूपों की भाग्य-लक्ष्मी सो जाए,
जगे रहेंगे पीनेवाले जगा करेगी मधुशाला.....
मुस्लमान और हिन्दू है दो एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय एक मगर उनकी हाला।
दोनों रहते एक न जब तक,मंदिर मस्जिद में जाते,
लड़वाते है मंदिर मस्जिद - मेल कराती मधुशाला....
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृध्धो से जब पूछा, एक यही उत्तर पाया,
अब न रहे वे पीनेवाले , न रही वो मधुशाला........